फूलों में अगर है बू तुम्हारी काँटों में भी होगी ख़ू तुम्हारी उस दिल पे हज़ार जान सदक़े जिस दिल में है आरज़ू तुम्हारी दो दिन में गुलू बहार क्या की रंगत वो रही न बू तुम्हारी चटका जो चमन में ग़ुंचा-ए-गुल बू दे गई गुफ़्तुगू तुम्हारी मुश्ताक़ से दूर भागती है इतनी है अजल में ख़ू तुम्हारी गर्दिश से है महर-ओ-मह के साबित उन को भी है जुस्तुजू तुम्हारी आँखों से कहो कमी न करना अश्कों से है आबरू तुम्हारी लो सर्द हुआ मैं नीम-बिस्मिल पूरी हुई आरज़ू तुम्हारी सब कहते हैं जिस को लैलतुल-क़द्र है काकुल-ए-मुश्क-बू तुम्हारी तन्हा न फिरो 'अमीर' शब को है घात में हर अदू तुम्हारी