इश्क़ जन्मों का है सफ़र शायद ख़त्म होगा न उम्र भर शायद आज कच्चा घड़ा है नाव मिरी पार लग जाऊँ डूब कर शायद हर्फ़-ए-मतलब सुना के रो देना काम कर जाए चश्म-ए-तर शायद ख़ुद को हम बारहा पुकार आए आज हम भी नहीं थे घर शायद और करनी है जुस्तुजू अपनी और फिरना है दर-ब-दर शायद कौन पागल को कू-ब-कू ढूँडे फिर रहा हो नगर नगर शायद शब गए उठ के याद कर उस को यूँ दुआओं में हो असर शायद आ के मंज़िल पे सो गया राही ख़त्म है बस यहीं सफ़र शायद बन सँवर कर रहा करो 'हसरत' उस की पड़ जाए इक नज़र शायद