इश्क़ का कोई ख़ैर-ख़्वाह तो है तू नहीं है तिरी निगाह तो है अर्ज़-ए-ग़म क्यूँ न उन से कर देखूँ अब भी थोड़ी सी रस्म-ओ-राह तो है ज़िंदगी इक सियाह रात सही आशिक़ी इक चराग़-ए-राह तो है रोज़-ओ-शब की हक़ीक़तें मा'लूम इक तमाशा-ए-मेहर-ओ-माह तो है ताब-ए-जल्वा मुझे नहीं न सही लेकिन इक जुरअत-ए-निगाह तो है और इक़बाल-ए-जुर्म क्या हो 'शकील' थरथराते लबों पे आह तो है