इश्क़-ए-सादिक़ उन को भी कर दे न दीवाना कहीं शम्अ' जलते जलते बन जाए न परवाना कहीं कह न दे रिंद-ए-सुबू-कश राज़-ए-मय-ख़ाना कहीं मोहतसिब भी सुन के हो जाए न मस्ताना कहीं मस्तियाँ छाई हुई हैं मै-कदा में चार-सू जल्वा-ए-साक़ी कहीं है दौर-ए-पैमाना कहीं जोश-ए-वहशत बढ़ते बढ़ते हो न जाए पर्दा-दर ख़ल्क़ में मशहूर हो मेरा न अफ़्साना कहीं चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी-ए-मख़मूर है मय-कश-नवाज़ भर न जाए उम्र-ए-दो-रोज़ा का पैमाना कहीं मय-परस्ती का मज़ा आए नशा बढ़ता रहे आज साक़ी दे जो पैमाने पे पैमाना कहीं कान उस आवाज़-ए-दिलकश से हों क्यूँकर आश्ना ग़म-कदा मेरा कहीं उन का तरब-ख़ाना कहीं सुन के मेरे जज़्बा-ए-वहशत को वो कहने लगे नज़्र-ए-शौक़-ए-दीद हो जाए न दीवाना कहीं ज़ब्त लाज़िम है तुम्हें 'कौकब' फ़रोग़-ए-इश्क़ में हर-कस-ओ-ना-कस से कह देना न अफ़्साना कहीं