इश्क़ को कश्फ़ किया हुस्न का क़ाइल हुआ मैं और फिर अपने लिए कलमा-ए-बातिल हुआ मैं रास आती नहीं अब मेरे लहू को कोई ख़ाक ऐसा इस जिस्म का पाबंद-ए-सलासिल हुआ मैं सारे असरार-ए-फ़ना खुलते रहे सुब्ह तलक रात आईना-ए-हस्ती के मुक़ाबिल हुआ मैं और फिर मेरी ख़मोशी में भँवर पड़ने लगे दम-ए-रुख़्सत तिरी आवाज़ का साहिल हुआ मैं सहल करता रहा जितना भी मुझे मेरा अदम कार-ए-हस्ती की तरह उतना ही मुश्किल हुआ मैं