'इश्क़ में याँ तक किया कोशिश कि आख़िर मर गया दिन-ब-दिन अफ़सोस को खाते ही खाते मर गया मत छुपा दिल देख कर ज़ाहिद को शीशे के तईं नें वो अपने दिल में समझेगा कि मुझ सें डर गया कब तलक आँखों के गुलरेज़े के तईं चुनता रहूँ एक दामन था सो वो भी आँसुओं सें भर गया छोड़ कर मेरी मोहब्बत हो गया जानाँ के सात हाए इस दिल ने मिरे सें ये दग़ा क्या कर गया होएगा क्यूँकर 'ज़िया' की वहशत-ए-दिल का 'इलाज अब तो उस के जिस्म की रग-रग में सौदा भर गया