इशरत-गह-ए-जहाँ में तमाशा है चार-सू या'नी फ़रेब-ए-दश्त-ए-तमन्ना है चार-सू नक़्श-ओ-निगार वहशत-ए-दिल-गीर के सिवा दामान-ए-गुल-फ़रोश में और क्या है चार-सू सैर-ओ-तवाफ़-ए-गौहर-ए-रंज-ओ-अलम करो हद्द-ए-नज़र में इश्क़ की दुनिया है चार-सू सुन कर बयान-ए-बाद-ए-सबा हो गया यक़ीन तेरी ज़बान-ए-शीरीं का चर्चा है चार-सू इक बहर-ए-तीरगी के सिवा क्या थी काएनात अब तो तिरी अदाओं का जल्वा है चार-सू औराक़ आसमाँ के भी देखे हैं खोल कर हम दोनों ही के इश्क़ का क़िस्सा है चार-सू इक दिन खिलेगा बन के गुल-ए-इंक़लाब-ए-इश्क़ मेरा लहू ज़मीन पे बिखरा है चार-सू सूरज भी जिस की ताब से थर्रा के हट गया वो बर्क़ ज़ेर-ए-हस्ती-ए-अश्या है चार-सू है मरकज़-ए-नशात-ए-दो-आलम 'नदीम' जी बच्चों ने मेरे नक़्शा वो खींचा है चार-सू