इसी से उजड़ा हुआ लाला-ज़ार है शायद चमन से दूर अभी तक बहार है शायद अज़ल से गोश-बर-आवाज़ है जहाँ सारा तिरी सदा का उसे इंतिज़ार है शायद उसी से तालिब-ए-जल्वा पे बिजलियाँ न गिरीं अभी हिजाब ही में वो निगार है शायद पुकारता है ज़माना मगर नहीं सुनता कोई समंद हवा पर सवार है शायद दुआ को हाथ उठाए हुए है इक बेकस करम का आप के उमीद-वार है शायद पहुँच गया है जो उड़ कर किसी के दामन तक वो मेरी ख़ाक-ए-लहद का ग़ुबार है शायद उठा जो दार-ए-फ़ना से गया वो सू-ए-अदम मुसाफ़िरों की यही रहगुज़ार है शायद तिरे करम ने नवाज़ा नहीं जो ऐ साक़ी उदास इसी से तिरा मय-गुसार है शायद कलीम-ए-तूर ने देखा था ऐ 'तरब' जिस को उसी हसीं का ज़माना शिकार है शायद