इसी तमन्ना में दिल का चराग़ जलता है कि उस के नूर से एहसास-ए-ग़म सँभलता है हुजूम-ए-रंज-ओ-मेहन में क़ज़ा को बहलाया कि वक़्त साँस के नक़्श-ए-क़दम पे चलता है किसी की गर्दिश-ए-अय्याम पर नज़र न रही कि शाम होते ही सूरज भी रोज़ ढलता है ये दर्द अज़्मत-ए-इम्काँ की हद से बाहर है ये ज़ख़्म वो है जो आग़ोश-ए-ग़म में पलता है मुग़ालतों में अँधेरों के ज़िंदगी गुज़री मिली है रौशनी जब भी तो दम निकलता है ये नींद पलकों का जो फ़ासला है रहने दे बस इस तरह तिरे वहशी का दिल बहलता है किया है ऐसे मसाइल ने मुज़्तरिब दिल को हर एक अश्क-ए-'शफ़क़' ग़म का रुख़ बदलता है