इसी उम्मीद पर हम शहर से बाहर निकल आए कि इस से ग़ालिबन सूरत कोई बेहतर निकल आए हर इक मंज़र से बिल-आख़िर कई मंज़र निकल आए हमारे हौसलों के जब से बाल-ओ-पर निकल आए हमारी सच्ची बातों का कोई हामी नहीं ठहरा तुम्हारी झूट की तस्दीक़ में लश्कर निकल आए ख़ुशी का भी भरम रक्खा न अश्कों ने सर-ए-महफ़िल तवक़्क़ो तो न थी इन से मगर बाहर निकल आए अभी तो आबले माज़ी के भी फूटे नहीं थे 'शान' कि मुस्तक़बिल के इतने ज़ख़्म फिर दिल पर निकल आए