रस्म होती है मिरी अब भी अदा मेरे बा'द ख़ाक उड़ाती है बयाबाँ में सबा मेरे बा'द इश्क़ को मेरे जुनूँ कह के नवाज़ा तुम ने हाए रुस्वा मुझे क्या क्या न किया मेरे बा'द अब मिरी तरह किसे खींच के शामत लाई कौन है हासिल-ए-बे-दाद-ओ-जफ़ा मेरे बा'द अब्र तो छाते हैं मय-ख़ाने पे अब भी लेकिन लुत्फ़ मादूम मुकद्दर है फ़ज़ा मेरे बा'द मेरे जाते ही गुलिस्ताँ पे उदासी छाई फूल तो फूल हैं सब्ज़ा न उगा मेरे बा'द पूछने वाला ही था कौन जहाँ में 'तालिब' नाम भी मिट गया अच्छा ही हुआ मेरे बा'द