नज़र हर शय को हर ज़र्रे को अपना दिल समझता हूँ इसी दीवानगी को होश का हासिल समझता हूँ डुबोया जज़्बा-ए-मासूम की इस ख़ुश-फ़रेबी ने मुझे दाद-ए-वफ़ा देंगे सर-ए-महफ़िल समझता हूँ इलाज-ए-दर्द किस काफ़िर को है दरकार चारागर मोहब्बत की अमानत है इसे मैं दिल समझता हूँ तबीअत हो गई है इस क़दर ख़ूगर हवादिस की सफ़ीना मौज को तूफ़ान को साहिल समझता हूँ बुझा देता हूँ 'तालिब' अपनी आँखें उस की राहों में किसी अहल-ए-हुनर को जब भी इस क़ाबिल समझता हूँ