इस चाँद से चेहरे को दिखा क्यूँ नहीं देते हसरत ये मिरे दिल की मिटा क्यूँ नहीं देते ख़ल्वत में तो कहते हो कि तुम जान हो मेरी ये बात ज़माने को बता क्यूँ नहीं देते ये बात अगर सच है कि तुम पीर-ए-मुग़ाँ हो इस रिंद को जी भर के पिला क्यूँ नहीं देते मक़्सूद नहीं नस्ल की इस्लाह अगर हो अस्लाफ़ के औसाफ़ बता क्यूँ नहीं देते अख़्लाक़ से किरदार से उल्फ़त से जहाँ में नफ़रत के अँधेरों को मिटा क्यूँ नहीं देते मैं हो के वफ़ादार भी मुल्ज़िम हूँ जफ़ा का फिर मेरी वफ़ाओं को भुला क्यूँ नहीं देते नफ़रत के घटा-टोप अँधेरे में 'ज़की' तुम इक शम्अ' मोहब्बत की जिला क्यों नहीं देते