आप को उस ने अब तराशा है क़हर है ज़ुल्म है तमाशा है उस को लेते बग़ल में डरता हूँ नाज़ुकी में वो शीशा बाशा है क्यूँ कहूँ अपने सीम-तन का हाल गाह तोला है गाह माशा है तिरे कूचे से उठ नहीं सकता किस वफ़ा-कुश्ता का ये लाशा है गर फ़रिश्ता भी हो 'हसन' तो वहाँ गाली और झिड़की बे-तहाशा है