इतना भी ऐ ख़ुदा मुझे मशहूर तू न कर मैं भूल जाऊँ तुझ को भी मग़रूर तू न कर मैं तुझ से दूरियों की तलबगार हूँ मगर ये इल्तिजा भी है कि मुझे दूर तू न कर वो रौशनी ही क्या जो बसारत को छीन ले आँखों को ऐ ख़ुदा मिरी बे-नूर तू न कर दुनिया के सामने कभी फैलाऊँ अपने हाथ परवरदिगार इतना भी मजबूर तू न कर तालिब रहूँ मैं इल्म की ता-उम्र ता-हयात दिल में ये जो तलब है उसे दूर तू न कर