इतने पुर-मग़्ज़ हैं दलाएल क्या दिल को कर लोगे अपने क़ाएल क्या फिर वही सर है और वही तेशा इश्क़ क्या इश्क़ के मसाइल क्या रौशनी रौशनी पुकारते हो रौशनी के नहीं मसाइल क्या रोज़ मैदान-ए-जंग बनता हूँ मुझ में आबाद हैं क़बाइल क्या किस क़दर अर्ज़ियाँ गुज़ारी हैं कभी देखी है मेरी फ़ाइल क्या हाथ फैलाना कोई कम तो नहीं पेट दिखलाए तुम को साइल क्या बैठे अब किर्चियाँ समेटते हो अपने रस्ते में ख़ुद थे हाएल क्या रात-भर जागते रहे हैं दरख़्त कोई पंछी हुआ है घायल क्या बात-बे-बात हँस रहे हो 'मुनीर' यूँ असर ग़म का होगा ज़ाइल क्या