दिन के पैकर में कहीं रात में ढलते हुए रंग जाने रुकते हैं कहाँ नींद में चलते हुए रंग आख़िरी शम्अ' बुझाते हुए अपने घर की मैं देखे थे किसी ताक़ में जलते हुए रंग उस परी-ज़ाद की आँखों में दिखाई देंगे एक ही पल में कई रंग बदलते हुए रंग सर उठाते हैं मिरे डूबते लहजे में कहीं गुफ़्तुगू करते हुए लफ़्ज़ उगलते हुए रंग सुब्ह-दम घर से निकलना ही अगर पड़ जाए नींद से आँख चुराता हूँ मसलते हुए रंग हार आया हूँ किसी आइना-ख़ाने में उन्हें मेरे हमराह नहीं आज उछलते हुए रंग इक बदलती हुई दुनिया के मकीं हैं 'साजिद' ख़ाक पर गिरते हुए और सँभलते हुए रंग