इतने ऊँचे मर्तबे तक तुझ को पहुँचाएगा कौन मैं हुआ मुंकिर तो फिर तेरी क़सम खाएगा कौन तेरे रस्ते में खड़ी थीं कौन सी मजबूरियाँ मैं समझ लूँगा मगर दुनिया को समझाएगा कौन मिल रही है जब हमें इक राहत-ए-आवारगी लौट कर इस अंजुमन से अपने घर जाएगा कौन मेरी माज़ूली की सुनना चाहते हैं सब ख़बर सोचता हूँ जा-नशीं बन कर मिरा आएगा कौन चाहता हूँ एक चिंगारी मैं इस चक़माक़ से लेकिन इस पत्थर से आख़िर मुझ को टकराएगा कौन नेक लोगों के लिए मौजूद हो तुम ऐ ख़िज़र मैं अगर भटका तो मुझ को राह पर लाएगा कौन उस के वादों में 'क़तील' इक हुस्न इक रानाई है वो न होगा जब तो उस सा मुझ को बहलाएगा कौन