इतनी ख़ता हुई कि हँसे थे किसी के साथ अब रो रहे हैं बैठ के हम ज़िंदगी के साथ राहत के साथ दुख है तो आँसू हँसी के साथ गहरा है कितना ग़म का तअल्लुक़ ख़ुशी के साथ अपना चलन बदलने लगे वक़्त की तरह मिलते थे जो हर इक से बड़ी सादगी के साथ साए सरों पे मौत के मंडलाते हैं मगर हम फिर भी जी रहे हैं उलू-हिम्मती के साथ किस को तुम्हारे दर्द से दिल-बस्तगी नहीं रौनक़ है अंजुमन की इसी रौशनी के साथ शायद वफ़ा-शनास नज़र का क़ुसूर है 'आरिफ़' सुलूक उन का जो है बे-रुख़ी के साथ