जब भी ज़ुल्फ़ों को तिरे रुख़ पे बिखरते देखा हो के शर्मिंदा घटाओं को गुज़रते देखा दिल से चुप-चाप तुझे जब भी गुज़रते देखा याद-ए-माज़ी का हर इक नक़्श उभरते देखा कितने ख़्वाबों को शब-ओ-रोज़ बिखरते देखा फिर भी इक पल न ज़माने को ठहरते देखा बात कुछ उन की जवानी पे ही मौक़ूफ़ नहीं चढ़ते दरिया को भी इक रोज़ उतरते देखा आई वो रौशनी हालात के बाज़ारों में अपने साए से भी हर शख़्स को डरते देखा कोंपलें फूटी हैं शाख़ों पे नए मौसम की जिस घड़ी जौर-ए-ख़िज़ाँ हद से गुज़रते देखा बहर-ए-उल्फ़त में तसव्वुर ही कहाँ साहिल का डूबने वाले को ही पार उतरते देखा राहतें मौत हैं इंसान के हक़ में 'आरिफ़' दिल की फ़ितरत को मसाइब में सँवरते देखा