इतनी ऊँचाई से धरती की ख़बर क्या जाने उस को मिट्टी ने ही पाला है शजर क्या जाने दफ़्न होते न हसीं ख़्वाब अधूरे लेकिन अपने मरने की घड़ी कोई बशर क्या जाने जिस मुसाफ़िर का पता पूछ रहे हो उस की उम्र गुज़री है मसाफ़त में वो घर क्या जाने उस ने नफ़रत के सिवा और कभी कुछ न किया फिर वो बद-ज़ात मोहब्बत का असर क्या जाने आज मौक़ा है तो यारों से निभा लो यारी कल फिर 'अफ़रंग' रहे कौन किधर क्या जाने