इस नए घर में भी हर चीज़ पुरानी क्यों है गर ये सूरत है तो फिर नक़्ल-ए-मकानी क्यों है कोई ख़ूबी भी नहीं नक़्स भी लाखों मुझ में तू मिरे इश्क़ में इस दर्जा दिवानी क्यों है हिज्र की बात करो मुझ से कभी ख़ल्वत में फिर ये सोचो कि मिरी आँख में पानी क्यों है लखनऊ शहर मिरा शहद सा लहजा समझूँ आप के शहर में ये तल्ख़-ज़बानी क्यों है जंग है जहल से 'अफ़रंग' क़लम ही काफ़ी क्या ज़रूरत है कि शमशीर उठानी क्यों है