इत्तिफ़ाक़न हुई साक़ी तिरी गुफ़्तार ग़लत

इत्तिफ़ाक़न हुई साक़ी तिरी गुफ़्तार ग़लत
जैसे कहने लगा हर बात को मय-ख़्वार ग़लत

तुम को होता है यक़ीं होती है तकरार ग़लत
रोज़ इक बात कहा करते हैं अग़्यार ग़लत

दिल मिरा ताका था और ज़ख़्म जिगर पर मारा
क्या तिरा हाथ पड़ा आज सितमगार ग़लत

सर मिरा काट ले जल्लाद न उफ़ निकलेगी
कभी कहने का नहीं तेरा वफ़ादार ग़लत

होश में आ के लगा ज़ख़्म ज़रा ओ क़ातिल
तेरे घबराने से पड़ जाती है तलवार ग़लत

जो वो कहता है मसीहा तो यक़ीं ला उस को
हाल कहने का नहीं है तिरा बीमार ग़लत

वो जो कुछ कहते हैं अग़्यार वही कहते हैं
अपनी हम बात को कह देते हैं नाचार ग़लत

छेड़ने को उन्हें मैं बात किए जाता हूँ
मेरे कहने को वो कह देते हैं हर बार ग़लत

रोज़ कहता है न जाऊँगा मैं उन ज़ुल्फ़ों में
दिल-ए-नादाँ तिरा हो जाता है इंकार ग़लत

क़ब्र में आने कहा है तो 'शफ़ीक़' आएगा
कभी कहने का नहीं मेरा मदद-गार ग़लत


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