इज़्तिराब ऐसा हुआ दिल का सहारा मुझ को कोई ठहराव नहीं ख़ुद में गवारा मुझ को सर उठाती है वो तज्दीद की ख़्वाहिश मुझ में नक़्श-गर सोचने लगता है दोबारा मुझ को मैं तही-दस्त खड़ा था सर-ए-सहरा-ए-हयात आरज़ू ने तिरी यक-लख़्त पुकारा मुझ को जा पहुँचना किसी रिफ़अत को नहीं है दुश्वार हाँ! ठहरने का वहाँ चाहिए यारा मुझ को देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले वक़्त की धूप ने किस दर्जा निखारा मुझ को एक कंकर सा मोज़ाहिम में रहूँगा कब तक ले ही जाएगा बहा कर कोई धारा मुझ को वक़्त ने जाने बनाना है मुझे क्या 'सारिम' गर्दिश-ए-चाक से अब तक न उतारा मुझ को