ज़ालिम तिरे वादों ने दीवाना बना रक्खा शम्-ए-रुख़-ए-अनवर का परवाना बना रक्खा सब्ज़ा की तरह मुझ को इस गुलशन-ए-आलम में अपनों से भी क़िस्मत ने बेगाना बना रक्खा तक़लीद ये अच्छी की साक़ी ने मिरे दिल की टूटे हुए शीशे का पैमाना बना रखा दावा तिरी उल्फ़त का कहने में नहीं आता ग़ैरों नय मगर इस का अफ़्साना बना रक्खा अफ़्सोस न की दिल की कुछ क़द्र 'अज़ीज़' अफ़्सोस काबा था उसे तू ने बुत-ख़ाना बना रक्खा