जान आँखों में रही जी से गुज़रने न दिया अच्छी दीदार की हसरत थी कि मरने न दिया क्या क़यामत है सितमगार भरी महफ़िल में दिल चुरा कर तिरी दुज़्दीदा नज़र ने न दिया मुद्दतों कश्मकश-ए-यास-ओ-तमन्ना में रहे ग़म ने जीने न दिया शौक़ ने मरने न दिया नाख़ुदा ने मुझे दलदल में फँसाए रक्खा डूब मरने न दिया पार उतरने न दिया कोई तो बात है जो ग़ैर के आगे उस ने शिकवा कैसा कि मुझे शुक्र भी करने न दिया ख़ाक आराम की ख़्वाहिश हो वतन से बाहर जब हमें चैन 'तपिश' अपने ही घर ने न दिया