जान को ख़तरा कभी ईमान को कोई समझाए दिल-ए-नादान को क्यों करे जन्नत की कोई आरज़ू ज़िंदगी प्यारी है हर इंसान को भूल जाओ दोस्तों की बे-रुख़ी याद रक्खो ग़ैर के एहसान को हम किसी क़ाबिल नहीं इस उम्र में अब कोई ख़तरा नहीं ईमान को इतनी तो 'पर्वाज़' में तौफ़ीक़ है मात दे सकता है ये शैतान को