जाने क्या वज्ह-ए-बेगानगी है शहर में जो भी है अजनबी है आग सी मेरे दिल में लगी है फिर भी कितनी ख़ुनुक चाँदनी है रात-भर शम्अ' तन्हा जली है तब कहीं रात जा कर कटी है उन को खो कर भी मैं जी रहा हूँ ये किसी और की ज़िंदगी है ज़हर-ए-ग़म काम कर भी चुका है मुस्कुराहट लबों पर वही है ताब के जाम रौशन रखोगे रात भी अब तो ढलने लगी है आज तो तुम भी सो जाओ 'इश्क़ी' आज तो दर्द में भी कमी है