जाने क्यों मोहब्बत में दिलकशी नहीं मिलती दोस्त रोज़ मिलते हैं दोस्ती नहीं मिलती ज़िंदगी अगर चाहो फ़ाक़ा-मस्त बन जाओ रोग़नी निवालों से ज़िंदगी नहीं मिलती मस्लक-ए-फ़क़ीरी में जो ख़ुशी मयस्सर है तख़्त-ए-बादशाही पर वो ख़ुशी नहीं मिलती अध-खुली कली शायद बाग़बाँ ने फिर तोड़ी क्यों गुलों के चेहरों पर ताज़गी नहीं मिलती उन को कोई समझाए अपना जाएज़ा ले लें जिन को अपने सज्दों में चाशनी नहीं मिलती दिल मिरा अँधेरे में आज भी भटकता है रौशनी की दुनिया में रौशनी नहीं मिलती ज़र्द ज़र्द चेहरे हैं ख़ौफ़-ए-मर्ग से 'आलम' अब तो कोई भी सूरत चाँद सी नहीं मिलती