जान-ए-मन आप तो बेज़ार हुए बैठे हैं

जान-ए-मन आप तो बेज़ार हुए बैठे हैं
क्या मसीहा मिरे बीमार हुए बैठे हैं

इस अदा पर मिरा दिल क्या मिरी जाँ भी हाज़िर
आप यूँ खिंच के जो तलवार हुए बैठे हैं

दुश्मन-ए-जाँ थे तो करते थे तआ'क़ुब लेकिन
जान-ए-जाँ हो के तो बे-कार हुए बैठे हैं

शाम की चाय का वा'दा वो उधर भूल गए
हम इधर सुब्ह से तय्यार हुए बैठे हैं

हासिल-ए-इश्क़ है क्या हुस्न-ए-नज़र से आगे
ख़ुश-गुमाँ तालिब-ए-दीदार हुए बैठे हैं

फिर ज़माने का है इसरार चलो साथ चलो
और हम राह में दीवार हुए बैठे हैं

उन की नज़रों का इशारा है निज़ाम-ए-हस्ती
अपनी क़ुदरत का जो शहकार हुए बैठे हैं

ज़िंदगी ख़्वाब मगर ख़्वाब-ए-हक़ीक़त-निगराँ
हम ये किस नींद में बेदार हुए बैठे हैं

दाद-ओ-तहसीन की पर्वा नहीं हम को 'पिंहाँ'
हम ग़ज़ल कह के ही सरशार हुए बैठे हैं


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