ज़र-ए-सरिश्क फ़ज़ा में उछालता हुआ मैं बिखर चला हूँ ख़ुशी को सँभालता हुआ मैं अभी तो पहले परों का भी क़र्ज़ है मुझ पर झिजक रहा हूँ नए पर निकालता हुआ मैं किसी जज़ीरा-ए-पुर-अम्न की तलाश में हूँ ख़ुद अपनी राख समुंदर में डालता हुआ मैं फलों के साथ कहीं घोंसले न गिर जाएँ ख़याल रखता हूँ पत्थर उछालता हुआ मैं ये किस बुलंदी पे ला कर खड़ा किया है मुझे कि थक गया हूँ तवाज़ुन सँभालता हुआ मैं वो आग फैली तो सब कुछ सियाह राख हुआ कि सो गया था बदन को उजालता हुआ मैं बिछड़ गया हूँ ख़ुद अपने मक़ाम से 'शाहिद' भटकने वालों को रस्ते पे डालता हुआ मैं