जाँ-सोज़ ग़मों का कहीं इज़हार नहीं है ज़िंदाँ में भी ज़ंजीर की झंकार नहीं है हर शख़्स के चेहरे पे है कुछ ऐसी अलामत जैसे वो कोई फूल है तलवार नहीं है सब गहरे समुंदर में खड़े सोच रहे हैं हम में कोई सूरज का परस्तार नहीं है ज़ख़्मों का लहू हो कि चराग़ों का उजाला कोई भी मिरे शहर में बेदार नहीं है मैं तुझ से बिछड़ कर यही समझा हूँ कि दुनिया दीवार तो है साया-ए-दीवार नहीं है ख़ुश-रंग ज़ुलेख़ाओं के बाज़ार में 'जाज़िब' कोई ग़म-ए-यूसुफ़ का ख़रीदार नहीं है