जब आबलों से कर्ब के धारे निकल पड़े इज़्न-ए-सफ़र के फिर से इशारे निकल पड़े जब गर्म पानियों से मिरी गुफ़्तुगू हुई तो बर्फ़ के बदन से शरारे निकल पड़े उस वक़्त अपने आप की मुझ को मिली ख़बर जब शहर-ए-गुम-शुदा में शुमारे निकल पड़े उम्मीद-ए-बहर-ए-नौ में कभी ग़ोता-ज़न था मैं क्यों गहरे पानियों से ख़सारे निकल पड़े ख़ौफ़-ए-शब-ए-मुहीब मिटाने के वास्ते सूरज के साथ चाँद सितारे निकल पड़े रस्ते के पत्थरों ने हमें जब भी दी सदा हम ने थकन के बोझ उतारे निकल पड़े हम को न पा के हादसे अपने मक़ाम पर 'ताबिश' हमारी खोज में सारे निकल पड़े