जब अपने नग़्मे न अपनी ज़बाँ तक आए तिरे हुज़ूर हम आ कर बहुत ही पछताए ख़याल बन न सका नग़्मा गरचे हम ने उसे हज़ार तरह के मलबूस-ए-लफ़्ज़ पहनाए ये हुस्न-ओ-रंग का तूफ़ाँ है मआज़-अल्लाह निगाह जम न सके और थक के रह गए जो दर्द उठे भी तो इज़हार उस का हो क्यूँकर हुज़ूर-ए-हुस्न अगर आवाज़ बैठ ही जाए हटे नज़र से न फ़ुर्क़त की धूप में 'आज़ाद' किसी की सुम्बुल-ए-शब रंग के घने साए