जब अपने-आप को मल्बूस में छुपाया था तमाम शहर को हम ने बरहना पाया था न अपनी सुब्ह की ख़ुशियाँ न अपनी शाम का ग़म हमारे पास तो जो कुछ था वो पराया था तलाश करती है जिस को तुम्हारी राहगुज़र वो मैं नहीं था मिरी जुस्तुजू का साया था वो हँस रहा था मगर अश्क-ए-ग़म न रोक सका ज़रा सी बात पे जिस ने हमें रुलाया था अजीब मोड़ था तर्क-ए-तअल्लुक़ात का वो जब अपने-आप से हम ने फ़रेब खाया था धुआँ धुआँ थी फ़ज़ा गर्द गर्द था मंज़र धुँदलका शाम का जिस दिन सहर पे छाया था