लम्हों की घुटन ख़ौफ़ का तूफ़ान बहुत है मेरी ही तरह वक़्त परेशान बहुत है हम जिस के लिए शहर-ए-सकूँ छोड़ के आए वो दश्त-ए-जुनूँ-ख़ेज़ भी सुनसान बहुत है मुझ से मिरी मंज़िल का पता पूछने वालो हर रास्ता मेरे लिए अंजान बहुत है हर मोड़ पे इक कोह-ए-गिराँ बन के खड़े हैं टूटे हुए लोगों में अभी शान बहुत है आबाद थे जिस में तिरी यारों के क़बीले वो क़र्या-ए-जाँ इन दिनों वीरान बहुत है ऐ दोस्तो दुख-दर्द के क़िस्से न सुनाओ 'ख़ुर्शीद'-सहर आज परेशान बहुत है