जब भी भूले से कभी लब पे हँसी आई है ग़म की तस्वीर मिरे ज़ेहन पे लहराई है इस क़दर चर्चा है कुछ आमद-ए-फ़स्ल-ए-गुल का ख़ार को ख़ार न कहने ही में दानाई है बन गई ख़ार सर-ए-शाख़ कली वो इक दिन फूल बनने की तमन्ना में जो मुरझाई है आँख ने देखा नहीं एक भी गुल ख़ंदा-ब-लब सिर्फ़ कानों ने सुना है कि बहार आई है दिन तो सायों के तआ'क़ुब में गुज़ारा लेकिन फिर वही रात वही मैं वही तन्हाई है जब था मैं गर्म-ए-सफ़र सायों से कतराता था थक गया हूँ तो मुझे शो'लों पे नींद आई है गो मैं बेगाना हूँ ख़ुद ज़ात से अपनी 'सीमाब' मेरी फ़ितरत में मगर अंजुमन-आराई है