जब भी हुई तामीर-ए-नशेमन बर्क़-ए-तपाँ तक बात गई आग लगी जब शाख़-ए-चमन में अपने मकाँ तक बात गई ज़िक्र-ए-लब-ओ-रुख़्सार से अक्सर टूट गया गुलचीं का भरम बात चली थी ग़ुंचा-ओ-गुल की और ख़िज़ाँ तक बात गई उन के गुनाह-ओ-जुर्म-ओ-ख़ता पर क़द-आवर ख़ामोश रहे हम से ज़रा सी चूक हुई तो ख़ुर्द-ओ-कलाँ तक बात गई कैसी वफ़ाएँ कैसा वा'दा किस किस पर इल्ज़ाम धरें ज़िक्र छिड़ा जब शहर-ए-सितम का कू-ए-बुताँ तक बात गई माह-रुख़ों में चर्चा था कल उस की जबीन-ए-रौशन का अर्ज़-ओ-समा से बाहर निकली काहकशाँ तक बात गई