जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था जीने की आरज़ू थी मगर हौसला न था आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था अच्छा हुआ कि साथ किसी को लिया न था दामान-ए-चाक चाक-गुलूँ को बहाना था वर्ना निगाह-ओ-दिल में कोई फ़ासला न था कुछ लोग शर्मसार ख़ुदा जाने क्यूँ हुए उन से तो रूह-ए-अस्र हमें कुछ गिला न था जलते रहे ख़याल बरसती रही घटा हाँ नाज़-ए-आगही तुझे क्या कुछ रवा न था सुनसान दोपहर है बड़ा जी उदास है कहने को साथ साथ हमारे ज़माना था हर आरज़ू का नाम नहीं आबरू-ए-जाँ हर तिश्ना-लब जमाल-ए-रुख़-ए-कर्बला न था आँधी में बर्ग-ए-गुल की ज़बाँ से 'अदा' हुआ वो राज़ जो किसी से अभी तक कहा न था