जब दिल में तेरी याद न आँखों में नींद थी ऐसी भी एक रात मुझे काटनी पड़ी जिस के बग़ैर पुल का गुज़रना मुहाल था उस जान-ए-जाँ की याद भी मेहमान बन गई पहलू में भी तिरे ग़म-ए-दौराँ का डर रहा कार-ए-जहाँ ने यूँ मिरी मिट्टी ख़राब की जिस के लिए ये ख़ाक-बसर उम्र भर रहा उस ने दिल-ए-ग़रीब की कोई ख़बर न की जीना नहीं था खेल मगर तेरे नाम पर हम ने ये क़ैद-ए-सख़्त भी हँस कर गुज़ार दी