पहले बनती ही न थी बात सो अब बनती है आज-कल उन के तसव्वुर से ग़ज़ब बनती है चलिए चल कर कहीं ढूँडे कोई उजड़ी हुई रात अपनी इन चाँद सितारों से तो कब बनती है नफ़्स जब रूह पे हावी हो तो फिर वहशत में तिश्नगी देखिए क़ुर्बत का सबब बनती है सुरमई शाम में सूरज का लहू मिल जाए तब कहीं जा के मिरी जान ये शब बनती है फिर सँभाले न सँभलती है अगर बिगड़े तो और बिगाड़े न बिगड़ती है कि जब बनती है पहले पहले तो किसी खेल सी लगती है मगर सर पे चढ़ जाए मोहब्बत तो तलब बनती है आशिक़ी हद से गुज़रती है तभी जा के 'शहाब' क़ैस-ओ-फ़रहाद का राँझे का लक़ब बनती है