जब गिना क़र्ज़ चुकाने आए By Ghazal << शौक़-ए-दीदार ने क्या क्या... यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा ... >> जब गिना क़र्ज़ चुकाने आए सब के फिर होश ठिकाने आए थम गई गर्द तो सब ने देखा सब तबाही के दहाने आए किस बला की है कशिश वा'दों में लोग फिर जान लुटाने आए मेरे हमदर्द हैं नादाँ कितने हिज्र का दर्द बटाने आए दिल का ये हाल हुआ है जिन से वो भी एहसान जताने आए Share on: