जब गुलिस्ताँ न रहा अपना गुलिस्ताँ की तरह आशियाँ क्यों न लगे फिर हमें ज़िंदाँ की तरह वो नज़र फेर के अब मुझ से गुज़र जाते हैं जो समझते थे कभी मुझ को रग-ए-जाँ की तरह जितना सुलझाया इसे और उलझती ही गई ज़िंदगी भी है मिरी गेसू-ए-पेचाँ की तरह कोई बिल्क़ीस मिरे घर में भी मेहमाँ होती मेरी तक़दीर भी होती जो सुलैमाँ की तरह दोस्त समझूँ मैं किसे और किसे दुश्मन जानूँ यूँ तो सब मिलते हैं मुझ से गुल-ए-ख़ंदाँ की तरह मुझ को हर मोड़ पे मुश्किल से बचा लेती है है मेरी माँ की दुआ मेरे निगहबाँ की तरह हैं ब-ज़ाहिर तो सभी आदमी लेकिन ऐ 'फ़राज़' कोई मिलता नहीं इस दौर में इंसाँ की तरह