जब हक़ दिल-ओ-दिमाग़ में भरपूर रच गया मेरे क़दम जहाँ पड़े कोहराम मच गया हर बार उस से क़ुव्वत-ए-इज़हार छिन गया जब भी मैं उस की बज़्म में ले कर पहुँच गया मैं ने तो अपने दर पे लिखाया था अपना नाम लेकिन कोई पड़ोसी उसे भी खुरच गया दरिया की तह चटान की ज़द को भी सह गई लेकिन ये क्या कि सत्ह पे इक शोर मच गया कल रात उन ग़रीबों को क़य क्यूँ न आ सकी खाना अमीर-ए-शहर का क्यूँ उन को पच गया 'असलम' करामतों में करूँगा शुमार अगर मेरा ख़ुलूस तोहमत-ए-याराँ से बच गया