जब हस्ती-ए-कौनैन तिरे ग़म में मिटा दी हर पर्दा-ए-हस्ती से मुझे तू ने सदा दी रूदाद मिरे ग़म की उन्हें किस ने सुना दी भड़की थी उधर आग इधर किस ने लगा दी अंजाम-ए-ग़म-ए-इश्क़ जो पूछा तो सबा ने कुछ ख़ाक पतंगों की सर-ए-बज़्म उड़ा दी हर शैख़-ओ-बरहमन को रह-ए-इश्क़ दिखा कर वहशी ने हद-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना मिटा दी