जब जब रफ़ाक़तों से गुज़रना पड़ा मुझे पुर-ख़ार वादियों में उतरना पड़ा मुझे अहद-ए-तग़य्युरात में जीने के नाम पर अपनी रिवायतों से मुकरना पड़ा मुझे दरिया के शोर-ओ-शर से में ख़ाइफ़ न था मगर साहिल के इंतिशार से डरना पड़ा मुझे बचपन के सब नुक़ूश निगाहों में फिर गए कुछ दिन जो अपने गाँव ठहरना पड़ा मुझे इक लम्हा-ए-हयात की तज़ईन के लिए सदियों सिमट सिमट के बिखरना पड़ा मुझे उस मंज़िल-फ़रेब से गुज़रा हूँ मैं जहाँ अपना भी ए'तिबार न करना पड़ा मुझे