जब जवानी नहीं तो फिर क्या है ज़िंदगानी नहीं तो फिर क्या है नज़्म वस्फ़-ए-दहन जो करता हूँ ग़ैब-दानी नहीं तो फिर क्या है हूर के ज़िक्र पर बिगड़ते हो बद-गुमानी नहीं तो फिर क्या है ख़ूब देखी शबीह यूसुफ़ की नक़्श-ए-सानी नहीं तो फिर क्या है ख़ुश-नवायान-ए-बाग़-ओ-कुंज-ए-क़फ़स दाना-पानी नहीं तो फिर क्या है नाज़ उठते नहीं हसीनों के ना-तवानी नहीं तो फिर क्या है दी जगह मुझ को अपने पहलू में मेहरबानी नहीं तो फिर क्या है अरिनी का जवाब ऐ मूसा लन-तरानी नहीं तो फिर क्या है दिल-ए-मुज़्तर में दाग़ छल्ले का ये निशानी नहीं तो फिर क्या है हो परेशान मुझ से ख़ल्वत में बद-गुमानी नहीं तो फिर क्या है आतिश-ए-तर को देख ऐ वाइज़ आग पानी नहीं तो फिर क्या है तिरे साक़ी सफ़ेद सीने में अर्ग़वानी नहीं तो फिर क्या है तू सुने तूर पर कलीम की बात ख़ुश-बयानी नहीं तो फिर क्या है ज़िंदगी जिस को लोग कहते हैं 'बद्र' फ़ानी नहीं तो फिर क्या है