आज फिर उस गली में जाते हैं अपनी क़िस्मत को आज़माते हैं लब-ए-शीरीं से देते हैं दुश्नाम शहद में ज़हर वो मिलाते हैं कीजिए वार तेग़-ए-अबरू का सर-ए-तस्लीम हम झुकाते हैं इश्क़ में हो गए हैं हम मज़दूर नाज़ महबूबों के उठाते हैं मुझ को घायल जो उन को करना है ज़हर में तेग़ को बुझाते हैं वो बरस पड़ते हैं अगर मुझ पर मेरे दिल की लगी बुझाते हैं ज़ुल्फ़ छू ली जो मैं ने वो बोले तुम से गुस्ताख़ मार खाते हैं हिज्र में क्या कहें ग़िज़ा क्या है ग़म-ए-जाँ-काह रोज़ खाते हैं मुझ से रौनक़ है उन की महफ़िल की शम्अ'-साँ मुझ को वो जलाते हैं बाद मुर्दन ये उन की दिल-सोज़ी शम्अ ले कर लहद पे आते हैं तर्क-ए-इश्क़-ए-बुताँ किया ऐ 'बद्र' अब मदीने को हम तो जाते हैं