जब कभी बंद करे मुट्ठियाँ बाहर निकले सब के हाथों में वही धूप के मंज़र निकले सब की आँखों में फँसे थे वही पथराए से ख़्वाब सब के सब लोग तमन्नाओं के आज़र निकले है ख़राबी इसी ता'मीर में मुज़्मर तेरी मोर ख़ुश-फ़हम न इतरा कि तिरे पर निकले ख़ाक ही कर दे मुझे गर्म-निगाही उस की एक अरमान तो तेरा दिल-ए-मुज़्तर निकले रूह को कर गए रौशन हद-ए-इदराक तलक ज़ख़्म मेरे मिरी उम्मीद से बढ़ कर निकले यूँ भी सच है कि हर इक गाम पे इक मंज़िल थी फिर भी गुम-कर्दा तिरी राह में अक्सर निकले किन फ़ुसूँ-ज़ाद जहानों का सफ़र था 'वसफ़ी' हम समझ बैठे जिन्हें दश्त समुंदर निकले