जब कभी भी इस जहाँ से रुख़्सती मुझ को मिले क़ब्ल इस से ऐ ख़ुदा कुछ ज़िंदगी मुझ को मिले मैं तो ज़िंदा हूँ अँधेरों पर सो मुझ को है ये डर मर न जाऊँ मैं अगर कुछ रौशनी मुझ को मिले उम्र भर मैं अपने आँसू आब-सूरत पी सकूँ चाहता हूँ इस तरह की तिश्नगी मुझ को मिले इक ज़रा देखे से मेरे नफ़रतें हो जाएँ ख़त्म मिल सके मुझ को तो ये जादूगरी मुझ को मिले जैसा बाहर से हो वैसा ही वो अंदर से भी हो काश इस दुनिया में ऐसा आदमी मुझ को मिले क्यों मिरी क़िस्मत में उस ने दर्द-ओ-ग़म कुछ कम लिखे पूछ लूँगा मैं ख़ुदा से गर कभी मुझ को मिले